क़ासिम सुलेमानी की हत्या इस्लामिक स्टेट के लिए अच्छी ख़बर क्यों है

ईरान के टॉप कमांडर क़ासिम सुलेमानी की हत्या के अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के फ़ैसले के प्रभाव तो कई हैं. लेकिन उनमें से एक अहम है जिहादियों के ख़िलाफ़ अधूरी लड़ाई.

सुलेमानी के मारे जाने के तुरंत बाद अमरीका के नेतृत्व वाली गठबंधन सेना ने इराक़ में इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ अपना अभियान तुरंत रोक दिया.

अमरीका और उनके सहयोगी देशों का ये कहना था कि अब उनकी प्राथमिकता अपनी सुरक्षा है.

अगर सैनिक दृष्टि से देखें, तो शायद उनके पास कोई विकल्प भी नहीं है. ईरान और इराक़ में उसके समर्थन वाली मिलिशिया ने सुलेमानी की हत्या का बदला देने की बात कही है.

पिछले शुक्रवार को बग़दाद हवाई अड्डे पर अमरीकी ड्रोन के हमले में ईरान के कुद्स फ़ोर्स के प्रमुख क़ासिम सुलेमानी मारे गए थे.

सुलेमानी की मौत के बाद इराक़ में मौजूद अमरीकी और अन्य पश्चिमी देशों के सैनिक निशाने पर आ गए हैं.

लेकिन इस स्थिति का फ़ायदा इस्लामिक स्टेट को भी है, जो अपने प्रमुख अबू बकर अल बग़दादी की मौत के बाद के झटके से उबरने की कोशिश करेगा.

इस्लामिक स्टेट के लिए ये और भी अच्छी ख़बर है कि इराक़ी संसद ने अमरीकी सैनिकों को अपने देश से चले जाने को लेकर एक प्रस्ताव भी पास किया है,

इराक़ में जब अल क़ायदा सिमट गया, तो उसकी आधारशिला पर इस्लामिक स्टेट ने अपनी इमारत खड़ी की.

वर्ष 2016 और 2017 में इराक़ और सीरिया में आईएस के नियंत्रण वाले इलाक़े में एक बड़ा सैनिक अभियान शुरू हुआ था.

इस अभियान में आईएस के कई लड़ाके मारे गए और कई पकड़े गए. लेकिन आईएस ख़त्म नहीं हुआ.

आईएस अभी भी इराक़ और सीरिया के कई इलाक़ों में अब भी सक्रिय है. वे छिप-छिप पर हमला करते हैं, पैसों की उगाही करते हैं और लोगों की हत्या भी करते हैं.

इराक़ में अमरीकी और अन्य पश्चिमी देशों से प्रशिक्षण पाए सैनिक और पुलिसकर्मी हैं, जो आईएस के ख़िलाफ़ जंग में शामिल हैं.

सुलेमानी की मौत के बाद अमरीका ने न सिर्फ़ अपना अभियान रोक दिया है, बल्कि प्रशिक्षण भी देना बंद कर दिया है. अमरीका के साथ-साथ डेनमार्क और जर्मनी ने भी अपना अभियान रोक दिया है.

जर्मनी ने अपने ट्रेनर्स को जॉर्डन और क़ुवैत भेज दिया है. आईएस के ख़िलाफ़ अभियान में इराक़ी सैनिक सबसे ज़्यादा ख़तरा मोल लेते हैं.

लेकिन ट्रेनिंग और अन्य सहायता के लिए वे अमरीकी सैनिकों पर निर्भर हैं. लेकिन अमरीकी सैनिक अब अपनी सक्रियता कम कर रहे हैं.

तथाकथित इस्लामिक स्टेट के लड़ाकों के पास जश्न मनाने की वजह कुछ और ही थी.

ट्रंप का क़ासिम सुलेमानी को मारने का फ़ैसला, आईएस के लिए उनके एक दुश्मन द्वारा दूसरे दुश्मन की हत्या करने का मामला था. ये उनके लिए गिफ़्ट था.

साल 2014, इन जिहादियों ने देश के दूसरे सबसे बड़े शहर मोसुल समेत, इराक़ के एक बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया था.

इसके बाद इराक़ के प्रमुख शिया धर्मगुरु आयतुल्लाह अली अल-सिस्तानी ने आईएस के इन सुन्नी लड़ाकों के लिए ख़िलाफ़ हथियार उठाने की अपील की.

इस अपील के बाद हज़ारों शिया युवा आगे आए. सुलेमानी और उनकी क़ुद्स फ़ोर्स ने उन्हें हथियारबंद करने में अहम भूमिका निभाई. ये नया गुट आईएस का कट्टर दुश्मन साबित हुआ.

अब उन ईरान समर्थिक गुटों को इराक़ी सेना में शामिल कर लिया गया है. इन गुटों के कुछ ताक़तवर नेता अब रसूख़दार सियासतदान बन गए हैं.

2014 के बाद अमरीका और इन गुटों का दुश्मन एक ही रहा है. लेकिन अब हालात बदलने वाले हैं. अब शिया गुट एक बार फिर 2003 में हमले के बाद अमरीकी सेना के ख़िलाफ़ हुए संघर्ष वाले हालात की ओर लौटेंगे.

उन दिनों इन शिया गुटों को सुलेमानी ने ट्रेनिंग दी और हथियार मुहैया करवाए. इन शिया लड़ाकों के हाथों कई अमरीकी सैनिकों की जान गई थी.

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